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एक दलित वृद्ध महिला को लील गयी हत्यारी व्यवस्था!!

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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July 31, 2010
जी हाँ, मै इसे हत्यारी व्यवस्था ही कहूँगा. जो की बेहद लाचार, दयनीय और ज़र्ज़र है.

कानपूर शहर के सबसे ज्यादा व्यस्त चरहों में से एक काकादेव चौराहा जो कि विकास भवन और मुरारी लाल क्षय रोग अस्पताल के बीच पड़ता है.
इसी चौराहे पर वह वृद्ध दलित महिला उम्र के आखिरी पड़ाव में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अस्त-व्यस्त पड़ी थी. शारीरिक तौर पर इतनी अशक्त इतनी ज्यादा थी कि उसने अपने कपड़ों में ही मल-मूत्र त्याग किया. मैंने देखा कि वहां एक तथाकथित टेम्पो स्टैंड है. थोड़ी देर नजदीक खड़े होकर एक दलित महिला कि अति विपन्न अवस्था और उसकी शारीरिक हालत देखी और देखा विकसित मानवों कि गतिमान भीड़. सोचने लगा कि क्या इस चौराहे पर ३०-३५००० से कम लोग गुजरते होंगे. क्या वे सब ऑंखें बंद करके गुजरते हैं जो इस वृद्ध दलित महिला को नहीं देख पाए. नेता, अधिकारी, विद्यार्थी, वकील, जज सभी तो गुजरते हैं. पीछे के माल के लोग ७०००० के पदार्पण का दावा करते हैं.सोचता हूँ कि ये बीमार भिखारिन है या आज कि मानवता भिखारिन हो गयी है..?
कहाँ हैं वे दलितों के मसीहा जो भगवन बनके यहाँ आ जाएँ और अगर जीवन न दे सकें तो कम से कम एक सम्मानित मौत ही मयस्सर करा दें…?
इंतज़ार के उन पलों को विकसित मानवों के अध्ययन में न लगते हुए यह सोचने लगा कि इनके लिए मै क्या कर सकता हूँ..?
मेरी मित्र आई, खोजने के लिए उसने फ़ोन किया तो मैंने उसे बुला के दिखाया. “देखो मनुष्यत्व और नैतिक मूल्यों कि बे-इन्तहा दुर्गति. देखो संवेदनशीलता विकसित मनुष्य की.” मैंने कहा.
“हे भगवान” आह भरते हुए वह बोली “चलना नहीं है क्या?”
“चलो, लेकिन लौट के इनके लिए कुछ करेंगे.”
“रिक्शा करें?”
“नहीं, पैदल चलेंगे. ज़मीन पर उतर के देखो तो कि विकास कि गंगा कहाँ-कहाँ और कैसे बही है.”
काकादेव चौराहे से गीतानगर crossing तक का हाल तो सभी शहरवासियों को पता ही होगा.
विकास भवन पहुँच के ख़ुशी हुई जब वहां एक वृद्धाश्रम का बोर्ड देखा. दिए हुए नंबर पर फ़ोन किया और वृद्धमाता के बारे में बताया.
जब उन्होंने आश्वासन दिया कि लेकर चले जाइये तो मुझे लगा कि कि धरती पर भी फ़रिश्ते हैं. कम से कम वृद्धमाता को कहीं तो आश्रय मिलेगा.

अब केशव नगर का पता खोजने की बात शुरू हुई.. आस-पास के लोगों से पता नहीं चला. इतने में भाई राजनाथ आये उन्होंने बताया की केशव नगर साकेत नगर के पास पड़ेगा.. मैंने सोचा की साकेत नगर है ही कितनी दूर..१५-१६ किमी. मैंने कहा “देवीजी वृद्धमाता को ले के चलना है”. “चलेंगे, अपना काम तो निपटा लो, जिसके लिए यहाँ आये थे.” खैर हम वहां से वापस वृद्धमाता के पास वापस पहुंचे.
“तुम्हारे पास कितने पैसे हैं?”
“२० रुपये.”
” मेरे पास ७५ रुपये हैं इधर से ऑटो में चलेंगे उधर से टेम्पो या बस से वापस आ जायेंगे. नहीं तो ऑटो ले लेंगे घर वापस जाके दे दूंगा.”
हम ७० रुपये में ऑटो तय करके सड़क के उस पार ले गए जहाँ वृद्धमाता सड़क पर पड़ी थी.मुझे ख़ुशी हुई की मुझे और मेरी मित्र को वृद्धामाता की सेवा का सौभाग्य मिला. अशक्त और असहाय वृद्धामाता की हालत ठीक नहीं थी. अशक्तता की वज़ह से उन्होंने अपने कपडे गंदे कर लिए थे. उनके पास एक शाल थी. उनको उठा के ऑटो में बैठाते हुए पूरी सीट मॉल-मूत्र युक्त हो गयी. पास में पड़ा हुआ एक कपडा उठा के सीट साफ़ करते हुए मैंने मित्र से कहा, “देखो तुम्हे असुविधा हो तो जा सकती हो.” ख़ुशी हुई की वो मानवता का साथ देने को तैयार थी. २ मिनट के लिए ऑटो रुका तो दो पुलिसिये आ गए कहने लगे की यहाँ कैसे जाम लगा रहे हो? आश्चर्य की वहां दिन भर कम से कम ५०० टेम्पो रुकते हैं उनको कभी इस तरह बदतमीज़ी से कहते हुए मैंने तो नहीं सुना. खैर सीट साफ़ करके हम बैठे वो मेरे बायीं तरफ और मै वृद्धामाता को पकड़ के. “वृद्धाश्रम वाले इनको रख लेंगे?” ऑटो चलने के साथ मेरी मित्र का पहला सवाल था. “और वृद्धाश्रम होते ही किसलिए हैं?” मैंने जवाब दिया. लोगों से पूछ-पूछ के पता करते हुए वृद्धाश्रम पहुंचे. वृद्धामाता को उतारा, ऑटो वाले को पैसे दिए, सीट साफ़ की और धन्यवाद दिया.
वृद्धामाता की जीर्ण-शीर्ण अवस्था को देखते हुए वृद्धाश्रम को असुविधा थी लेकिन इस वचन पर “कोई ज्यादा दिक्कत हुई तो मै ले के जाऊंगा.” आश्रम ने उनको शरण दी. उठते-बैठते सहारे से भी थोड़ी-थोड़ी दूर चलते हुए हम माता जी को बाथरूम तक ले गए. २०-२५ मीटर के रास्ते में ही उन्होंने एक जगह कपड़ों में ही मूत्र त्याग किया.
इसी दौरान ज्ञानभारती के अखिलेश अवस्थी जी का वहां आना हुआ, वो किसी सज्जन के साथ वृद्धाश्रम का मुआयना करने आये थे. मुझे अपर हर्ष हुआ जब मेरी मित्र ने पूरी शिद्दत से वृद्धामाता को नहला-धुला के साफ़ कपडे पहनाये. खाना दिया गया. जयराम भाई से सलाह लेकर कुछ ताकत की दवाएं लाके दीं. दूध के लिए २० रुपये देने के साथ विशेष देखभाल का अनुरोध किया. आश्रम का सेवा भाव देख के सोच की काश मै भी इस व्यवस्था का एक हिस्सा होता. मैंने आश्रम को धन्यवाद दिया. मै और मेरी मित्र असीम संतुष्टि के साथ वापस लौटे.
मुझे क्या पता था की हत्यारी व्यवस्था का दानव दलित वृद्ध को निगलने के लिए तैयार था… क्रमशः

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