गोवध और विदेशी मुद्रा विनिमय: तथ्यपरक विवेचन
90 के दशक में विकसित पश्चिमी सभ्यता के स्वनामधन्य वैज्ञानिकों ने मवेशियों की एक नयी बीमारी को जन्म दिया. इसको नाम दिया गया “मैड काऊ.” इसकी वजह गायों के तथाकथित विकास के लिए उनके लिए बूढी बीमार और रोगी गायों के मांस से बने चारे का प्रयोग. इसके अल्पकालिक और दीर्घकालिक प्रभावों के तहत उनको यह कार्यक्रम रोकना पड़ा. गौरतलब है कि
जैसे ही बहुत से अध्ययनों से पाश्चात्य विश्लेषकों ने महसूस किया की उनकी गायों का संक्रमित मांस जहरीला हो चुका है,
और संक्रमित गोमांस कैंसरकारी है. इसी के परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी और ब्रिटेन के चिंतकों ने भारतीयों को गोमांस निर्यात
के लिए प्रेरित करना शुरू किया. भारतीय गोवंश अधिक सुरक्षित है, संक्रमित नहीं है क्योंकि हमारी गायें घास और भूसा
खाती हैं, चारे के रूप में गोमांस नहीं. और ना ही हमारी गायों कि कृत्रिम वृद्धि/ विकास के लिए एस्ट्रोजेन
हारमोंस दिया जाता है.
इसीलिए शायद हमारे यहाँ गोवंश का विकास संतुलित है. उन विदेशियों कि नज़र में यहाँ का गोमांस ज्यादा पवित्र और
स्वादिष्ट है. इतिहास गवाह है अपनी बदनीयती को भारत के विकास और विदेशी विनिमय से जोड़कर अपने हितों का साधन
करना हमेशा से बहुराष्ट्रीय कंपनियों उद्देश्य रहा है. इस उद्देश्य के लिए भी इन कंपनियों ने निर्यातकों को प्रोत्साहित किया.
वर्ष 1999 में भारत के सिर्फ आन्ध्र प्रदेश में 184200 गायों को इसी विदेशी कंपनियों कि बदनीयती के चलते कटा गया.
इस गोमांस निर्यात से 20 करोड़ विदेशी मुद्रा अर्जित हुई.
यदि इतनी बड़ी संख्या में गोवंश का वध न करके यदि उनको जीवित रखा जाता (भले ही वे दुधारू न रही हों ) तो..
1.इनसे प्राप्त जैविक खाद से 384 हेक्टेयर जैविक खेती से 530000 टन जैविक खाद्यान्न का उत्पादन किया जा सकता था..
2.सरकारी बेवकूफी इससे कहीं आगे रही है.. भूमि में प्राकृतिक नाइट्रोजन फोस्फोरस और जैवुक उर्वरता में कमी के लिए
9 करोड़ रुपये मूल्य की नाइट्रोजन फोस्फोरस युक्त रासायनिक खादों का उपयोग किया.
3.यदि हम उपले कंडों से ग्रामीण उर्जा उपलब्धता की बात करें तो 184000 गोवंश के गोबर से 450000 लोगों की नियमित घरेलु
उर्जा उपलब्धता हो सकती थी. इस स्वक्छ प्राकृतिक इंधन की कुल कीमत लगभग 22 .5 करोड़ होती है. गोमांस के निर्यात से उत्पन्न उर्जा की कमी को पूरा करने के लिए या यूँ कहें की 450000 लोगों की इंधन जरूरतों को पूरा करने के लिए हमे इन्ही कंपनियों से जीवाश्म इंधनों (केरोसिन इत्यादि ) का आयात करना पड़ता है. यह केरोसिन ज्यादा खतरनाक है, प्रदूषक है, कैंसरकारक है और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जन स्वस्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल के अंततः बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाओं की बिक्री के लिए उत्प्रेरक का काम करता है. और जन स्वस्थ्य पर सरकारी संसाधनों के खर्च को बढाता है.
4.यह भी गौतलब तथ्य है की यही गाय का गोबर आँगन और घर में लीपकर अत्यंत खतरनाक रेडियोधर्मी विकिरण से बचा जा सकता है. परंपरागत लेपन, प्रज्ज्वलन से इसके कीटनाशी प्रभाव का प्रयोग तो हम लाखों वर्षों से करते चले आ रहे हैं. गाय के घी और दूध की प्रतिरोधकता पर अभी तक किसी ने कोई सवाल खड़ा नहीं किया है, क्योंकि अनंतकाल से गोवंश ने मनुष्य जाति का जन्म से मृत्यु तक हर समय साथ दिया है.
5.पश्चिमी विज्ञानं के अध्ययनों ने यह स्पष्ट किया है किगोमांस का नियमित प्रयोग कैंसरकारक है महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर, पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर गोमांस के नियमित सेवन से होना अवश्यम्भावी है.
आज तक गो वंश के लिए हो रहे सरकारी कार्य सिर्फ सफ़ेद हाथी ही साबित हुए हैं. अवसरवादी संगठनों के अल्पज्ञान ने भी इस प्रकार के संगठित प्रयास और वैज्ञानिक विवेचन से दूर ही रखा है… क्या गोवंश के मानवजीवन में सस्थान के लिए भी कोई प्रमाण पत्र चाहिए? डेयरी उत्पादक भी गोवंश के बजाये अपने आर्थिक लाभों के चलते गैर परंपरागत मवेशियों को ही बढ़ावा दे रहे हैं. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साथ-साथ वैज्ञानिक राष्ट्रवादियों के लिए भी यह एक बहुत बड़ी चुनौती है कि गोवंश के पोषण सम्मान के लिए ठोस कार्ययोजना या राष्ट्रीय नीतियों का समुचित कार्यान्वयन सुनिश्चित हो…. आप लोग क्या इसके लिए कीजियेगा?
साभार: विश्व राजनैतिक एवं सामरिक सुरक्षा अध्ययन संसथान हैदराबाद.
Read Comments