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एक सम्मानित समाचार पत्र के सम्पादकीय लेख (लेखक गुरुचरण दास ) के विरोध में..

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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भारत भाई साहब आज तो हद कर दी, गुरुचरण दास जी के सम्पादकीय लेख, “आर्थिक सुधारों के दो दशक” ने इसमें तो हर एक समस्या के समाधान में उदारीकरण और  विनिवेश  को ही आखिरी उपाय बताया  है. आप बताओ ये तो एकतरफा  दृष्टिकोण नही तो और क्या है..

अपने इंजीनियरिंग के दौरान के एक मित्र का ज़िक्र करता हूँ,, उसका रंग बहुत कला था, लोग उसे कल्लू कह के चिढाते थे, उसे बहुत बुरा  लगा  उसने फेयर एंड लवली लगा के चेहरे को चमका लिया. अब उसका चेहरा गोरा हो गया. लेकिन क्या उसके शारीर और मन में वह हिन् भावना ख़त्म हो पाई होगी? कुछ ऐसा है आपके दो दशकों का विकास.

इन्होने  जिस प्रकार के विकास की वकालत कि है. वह सिर्फ शहरीकरण,   जनसँख्या के असमान वितरण  और भ्रष्टाचार को बाधवा देने वाली रही है. अमीर और ज्यादा अमीर हुए हैं, माध्यम वर्ग गरीब और गरीब वर्ग कंगाली की हालत में पहुँच गया है. यदि आप मंरेगा जैसी बेहूदा योजनाओं के आधार पर विकास का डंका बजा रहे हैं, या गरीबी रेखा के निचे रहने वाले लोगों को मुफ्त का अनाज बांटने की कथा कह के अपनी पीठ ठोंक रहे हैं तो शायद आप आदमी के स्वतंत्र अस्तित्व्य और राष्ट्र/राज्य और व्यक्ति के स्वाभिमान को मार के उनको जिन्दा रखने की वकालत करते नज़र आते हैं. किसी को उसके मोहल्ले में गिट्टी तुडवाने के लिए रोटी देना कहाँ तक तर्क सांगत लगता है? इस देश के बेरोजगार को स्वाभिमान  की कीमत पर रोटी देना और जो लगभग अकार्यशील हैं उनको रोजगार न देकर सिर्फ रोटी देना उनके स्वाभिमान को आहात करने वाला निहायत निंदनीय कार्य है.
ये तो बात रही रोटी और रोजगार की. गुणवत्तापरक चिकित्सा सुविधाओं की आम आदमी तक पहुँच कितनी सुलभ है किसी को बताने की जरुरत नहीं है. यदि उसके बाद भी आप ऐसे विकास की वकालत करते हैं तो शायद आप उसी वर्ग को प्रस्तुत करते हैं जो की ऐसी कमरों में बैठ के सबसे ज्यादा प्रदुषण वाले क्षेत्र की योजनायें बनाता है.
ये तो रही फर्जी बकवास..अब आइये आंकड़ों के खेल की बात करते हैं,
समझदार अर्थशास्त्री कहते हैं की देश के विकास की दर ६-९% के बीच रही है,  विकास  की इस खोखली  कहानी में २ लाख किसानो की आत्म हत्या, १ करोड़ से ज्यादा लोगों का कृषि या कृषि आधारित उद्योगों का पलायन (ये है कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का विकास.), ही जोड़ लेते तो क्या अन्याय हो जाता क्या? देश के ५% लोग  देश के ९५% प्रतिशत लोगों के पास सिकुड़ते जा रहे हैं, कौन बेवकूफ इसे बेवकूफ कहेगा? देश का 100000000 करोड़ से ज्यादा रूपया विदेशी बैंकों में जमा है? यह है भ्रष्टाचार का विकास.. मेरा लेखक महोदय से सवाल है कि एक स्वतंत्र विचारक होने के बावजूद  कौन सा विकास आपको ग्लोबलाइजेशन, विनिवेश और तथाकथित आर्थिक उदारीकरण का यशगान करने को बाध्य करता है.? कृपया इस परिचर्चा को दोनों बेवकूफों (कार्ल मार्क्स और एडम स्मिथ) से इतर ही रखने कि कृपा करें.

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