अन्ना ये आपने/हमने क्या किया?
[slideshow]मुझे अन्ना या उनके सहयोगियों पर कोई संदेह नहीं है… क्षेत्रीय स्तर पर मैंने स्वयं उनके इस आन्दोलन का प्रतिनिधित्व या कोई भी योगदान करके मैंने गौरव महसूस किया है… लेकिन यदि सारा फायदा कांग्रेस को होता दिखाई दे रहा है… तो कुछ बेवकूफ यह कहने लगें कि यह कांग्रेस ने कैश करवा लिया तो क्या अतिशयोक्ति हो जाएगी? दूसरा कोई यह भी कह सकता है कि यह सारा काम पूर्व में सुनियोजित किया गया हो… अन्ना, बेदी, अरविन्द जी जैसे लोगों को इसका अंदाज़ा है या नहीं.. ये अलग बात है.. एक स्वतंत्र विचारक होने के नाते इस पूरी घटना का पोस्ट मार्टम करना जरुरी हो जाता है.ताकि वे बहुत से सवालिया कीड़े मर सकें जो कि अन्ना और आम जनता का यह आन्दोलन छोड़ गया…
मेरे सवाल:
१. कार्पोरेट के चापलूस और कमिशनखोर इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इस पुरे प्रकरण को इतना अतिशय बढ़ावा क्यों दिया क्या इसमें शासन का कोई हाथ नहीं..?
2. मीडिया, सोशल नेटवर्किंग और दुसरे माध्यमों पर सरकार क्षणिक विराम लगा सकती थी.. आन्दोलन को इस कदर फैलने से रोक सकती थी. ज्यादातर मीडिया विदेशी समूहों के अधिकार क्षेत्र में है इसलिए उनसे देश-प्रेम या देश के लिए जज़्ब-ओ-जूनून मृग मरीचिका जैसा है. और यदि उन्होंने इतने मुक्त रूप से दिखाया है तो क्या यह और ज्यादा खतरनाक नहीं हो जाता है… ?? इसके पीछे उनके आर्थिक-सामरिक क्या मनसूबे हो सकते हैं.?
२. मीडिया में बाबा रामदेव के चैनल पर सीधे प्रसारण पर रोक लगाई लेकिन इस पुरे कार्यक्रम को ९० घंटे लगातार सजीव प्रसारण किया… अब यह ऊपर से निकल रही है की इतने सारे मीडिया समूहों का समयांतराल में ह्रदय परिवर्तन हो गया होगा.. और वे नीरा रादिया और कार्पोरेट की बजाये जनता से ज्यादा हमदर्दी रखने लगे होंगे…. और अगर हाँ है तो क्यों?
३. इस आन्दोलन का समय पांच राज्यों में चुनावों के मद्देनज़र तो उचित रणनीति कहा जा सकता है… लेकिन इस आन्दोलन के लम्बा खिंचने की स्थिति में क्या आई पी एल (IPL) से यह बाधित न होता? शायद जनमानस सीधे तौर पर क्रिकेट को ज्यादा प्राथमिकता देता (हो सकता है मई गलत साबित होता ). यदि यह इंडिया अगेंस्ट करप्शन के रणनीतिकारों को पता थी तो उसके बाद भी यही समय क्यों ?
-क्या इसलिए कि जनभावनाओं के ज्वार को नियंत्रित करने के सभी साधन सरकार के पास उपलब्ध हों. या आन्दोलन उग्र न हो सके.
४. कांग्रेस को प्रत्यक्ष फायदे..
-मुझे तो कांग्रेस का कोई नुकसान समझ नहीं आता… यदि आप यह माने कि इतने राज्यों में कांग्रेस कि हार या कोई खास गणित बिगड़ेगी तो शायद इन राज्यों में कांग्रेस का कोई इतना मजबूत जनाधार है ही नहीं… और है भी तो सहयोगी दलों का… अगर वे कमजोर भी होते हैं तो फायदा किसको … स्पष्ट है कि सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस को.
-ज्यादातर घपले-घोटाले जो की सुप्रीम कोर्ट खुद देख रही थी या तो शिथिल हुए या लगभग बंद हो गए.. (शायद इससे सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को हुआ.)
-शरद पंवार जैसे दबंग को बैक फुट पर आना पड़ा …कांग्रेस मजबूत..
-ममता बनर्जी जैसे कद्दावर नेत्री के घर में सेंध…स्वामी अग्निवेश नक्सलवादी जनमानस में बहुत अच्छी पकड़ रखते हैं… नतीजा कांग्रेस मजबूत.
-जब तक यह विधेयक सिविल सोसाइटी और सरकारी प्रयासों से फलीभूत होगा, इस बिल की ड्राफ्टिंग में २ साल कर्च करके एक पाक साफ़ छवि के साथ सोनिया जी. राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर सकती है.. और जनता की सबसे बड़ी उम्मीद यही कानून होगा जो की उस समय उनके चुनावी घोषणा पत्र के सबसे बड़े मुद्दे के रूप में जनाधार बाधा रहा होगा… यदि एक दलीय व्यवस्था में कांग्रेस फिर से इंदिरा जैसी ताकत से शासन में लौट पाए तो क्या हरोसा की इमेर्गेंच्य जैसे हालत क्यों नहीं दोहराए जा सकते?
-स्वामी रामदेव का सबसे बड़ा हथियार मुद्दा (कालाधन और भ्रष्टाचार ) अब कांग्रेस के कब्जे में… भाजपा और दुसरे दलों को प्रत्यक्ष कोई फायदा मिलता नहीं दिखाई देता है.
-इस प्रकार के एक प्रदर्शन से अगर सरकार इस स्तर के समझौते कर सकती है तो इस बात का क्या भरोसा कि कोई (व्यक्ति या समूह ) दूसरा मुद्दा पकड़ के अपना फायदा करवाने कि कोशिश नहीं कर सकेगा, यह तो लोकतंत्र में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों पर दबाव बना के काम लेना हुआ… लोकतंत्र कि मूल भावना के निहायत ही खिलाफ. अब बताइए कि बराक ओबामा यही काम ५०० करोड़ रुपये खर्च करके करें और आप इस प्रकार के आन्दोलन करके… नतीजा तो उन्ही ५०० प्रतिनिधियों को दबाव में लेकर या खरीद कर अपना काम करवाना ही निकला…. सही या गलत जैसे भी हों वे जनता से ही चुन के आते हैं. और उनके ऊपर दबाव दाल के काम करवाने का मतलब जनादेश का अपमान…
यदि जनता के चुने हुए जनप्रतिनिधियों का प्रभाव कम से कमतर करेंगे तो कौन मजबूत होगा… शायद कार्पोरेट लॉबी या ब्यूरोक्रेसी कार्पोरेट लॉबी में राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सबसे मजबूत सम्बन्ध या नियंत्रण किसका?… कांग्रेस का.
… (क्या इसीलिए कार्पोरेट का चापलूस मीडिया और चंद रुपयों में बिकने वाले अभिनेता-अभिनेत्री इसी मनसूबे के तहत तो नहीं प्रेरित किये गए. ) (यहाँ पर ध्यान दिया जाए कि ब्यूरोक्रेसी का कोई संगठित स्वरुप न है और न ही हो सकता है.)
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