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May 13, 2011, 12:30 PM, Kanpur[slideshow]
जी हाँ, मै इसे हत्यारी व्यवस्था ही कहूँगा. जो की बेहद लाचार, दयनीय और ज़र्ज़र है. और एक बार फिर से चुनौती बनी है मेरे जैसे आम नागरिक के लिए और बहुत से स्वतंत्र विचारकों, समाजविदों, कर्मयोगियों और कर्मठ नवयुवकों के लिए…
यह आपके शहर के माल रोड पर बेबस पड़ी एक वृद्धा हैं..पंजाबी में धाराप्रवाह बात करने वाली ये महिला जो अपना नाम परमजीत बताती हैं, वाराणसी की रहने वाली हैं.. एक पैर में प्लास्टर चढ़ा है चलने में समर्थ नहीं हैं. पास में एक दुकानदार भाई से पूछा तो पता चला कि एक हफ्ते पहले कोई इन्हें यहाँ छोड़ गया है… पास जाकर देखना चाह.. वह वृद्ध दलित महिला उम्र के जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अस्त-व्यस्त पड़ी थी. शारीरिक तौर पर इतनी अशक्त इतनी ज्यादा थी कि उसने अपने कपड़ों में ही मल-मूत्र त्याग किया. थोड़ी देर नजदीक खड़े होकर एक दलित महिला की अति विपन्न अवस्था और उसकी शारीरिक हालत देखी और देखा विकसित मानवों कि गतिमान भीड़. सोचने लगा कि क्या इस सड़क पर ३०-३५००० से कम लोग गुजरते होंगे. क्या वे सब ऑंखें बंद करके गुजरते हैं जो इस वृद्ध दलित महिला को नहीं देख पाए. नेता, अधिकारी, विद्यार्थी, वकील, जज सभी तो गुजरते हैं. दो पेट्रोल पम्प , शहर का सबसे बड़ा सरकारी स्कूल, 100 मीटर से भी कम दुरी पर पुलिस स्टेशन और चमचमाते हुए अस्पताल, बड़े-बड़े रंग-बिरंगे आफिस काम्प्लेक्स और सरकारी दफ्तर और सोचता हूँ कि ये बीमार भिखारिन है या आज कि मानवता भिखारिन हो गयी है..? यह छात्र संख्या में शहर के उस सबसे बड़े विद्यालय के बाहर का वर्तमान है…मै जहाँ का एक पूर्व छात्र रहा हूँ. विद्यालय जहाँ आज भी 200 से ज्यादा शिक्षक और लगभग 7000 से ज्यादा विद्यार्थी सत्य, दया, क्षमा , शांति और प्रेम पढ़ते हैं. उस पर तुर्रा यह है आज मंडल के सैकड़ों वरिष्ठ अध्यापक, शिक्षक विधायक और शिक्षा राजनीति के बहुत से ठेकेदार भी इस विद्यालय में दिन भर रहे. क्या उन्होंने देखा नहीं.. अनदेखा किया या समर्थ नहीं थे?
कहाँ हैं वे दलितों के मसीहा जो भगवान बनके यहाँ आ जाएँ और अगर जीवन न दे सकें तो कम से कम एक सम्मानित मौत ही मयस्सर करा दें…?
जाति की ज़रूरत नहीं है वृद्धमाता की स्थिति का उल्लेख करने के लिए . परन्तु यहाँ पर “दलित” शब्द का आशय जाति से नहीं है , परिस्थिति से है . हत्यारी व्यवस्था के उस पहलु से है जो सिर्फ आर्थिक हितलाभ के लिए जातिगत और व्यक्तिगत तौर पर प्रेरित करता है . “दलित” एक जाति नहीं है , दलित एक परिस्थिति है , एक अवस्था है . हो सकता है की वृद्धमाता जातीय तौर पर दलित न रही हों परन्तु वह “दलित” है क्योंकि शासन और समाज के हर अवयव ने उनके मनुष्यत्व का शोषण किया है, दलन किया है, मनुष्यत्व का अपमान किया है और इस 65-70 साल की उम्र में इस अति विपन्न दयनीय अवस्था में पहुँचाया. हर वो व्यक्ति जो इस दयनीय अवस्था में जी रहा है वह दलित है. अब अगर शासन तंत्र के ठेकेदारों ने दलित अवस्था के बंधन से बाँध दिया है तो इसे दुनिया के सबसे बे लोकतंत्र के संविधान की विपन्नता अर्थात ज्ञान शून्यता ही कहा जायेगा. और यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा.
उन पलों को विकसित मानवों के अध्ययन में न लगते हुए यह सोचने लगा कि इनके लिए मै क्या कर सकता हूँ..?
एक वृद्धा माता कि सेवा में पहले वाकया जो मेरे साथ हुआ उसे याद करके मै सिहर उठा.. याद आये वो ठेकेदार जो समाज सेवा कि दुकाने चलाते हैं. वृद्धाश्रम में भी उन्ही महिलाओं को आश्रय देते हैं जो शारीरिक रूप से समर्थ हो. अब यहाँ जरुरत है देख-भाल करने वाले किसी आया या सरंक्षक की….
मेरे सामने फिर यह प्रश्न खड़ा है की क्या इस महिला को भी यह हत्यारी व्यवस्था लीलने को तैयार बैठी है…
अपने पूर्वर्ती अनुभव के सन्दर्भ लिए ये लिंक मै आप सभी को दे रहा हूँ…
http://facebook.com/note.php?note_id=148807248467639
यह नोट लिखने का उद्देश्य आपके सार्थक और गंभीर सुझावों से इस समस्या के स्थायी समाधान ही है. कृपया अन्यथा न ले…
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