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भारत में जातिवादी व्यवस्था का उदय विदेशी आक्रमण के बाद शुरू हुआ. जैसा की हम पूर्ववर्ती शासन में रख रहे थे उसमे सारी व्यवस्थाएं कर्म के आधार पर थी. प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा राज्य के दायित्व में शामिल थी. तब भारत ज्ञान में विश्व गुरु था. सामाजिक जीवन कर्म आधारित था. तथा राज्य धर्मनिरपेक्ष न्याय की व्यवस्था थी. हर गाँव में कम से कम एक विद्यालय हुआ करता था और केंद्रीय शिक्षा प्रणाली में विश्वविद्यालयों की अवधारणा व्यवस्थित थी. दुनिया के सबसे पहले विश्वविद्यालय भारत में ही पाए गए हैं, ये इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं. विदेशी आक्रमणों के समय . जब शिक्षालयों और विद्यालयों को जलाया जाने लगा (इतिहास लिखता है कि नालंदा विश्विद्यालय कि पुस्तक संख्या और आकर इतना विशाल था कि वह एक महीने तक जलती रही थी.) तो ज्ञान को बचा के रखना एक बहुत बड़ी चुनौती थी. इसके लिए समाज के अग्रगण्य लोगों ने हर विधा में माहिर लोगों को बुला के विवेचन किया निष्कर्ष निकला की ज्ञान को बचा के रखने का सर्वोत्तम उपाय है कि जो भी व्यक्ति जिस विधा में पारंगत है उसे उसी विधा का दायित्व दे दिया जाये, जैसे यदि कोई लोहे या काष्ठकला का पारंगत है तो उसे लोहार या बढई कहा जाये और उसका कर्त्तव्य ये हो कि वह अपने स्तर पर राज्य के लिए इस विधा का सरंक्षण करे.. इसी प्रकार वेद-विज्ञानं धातु कला और साहित्य और संस्कृति के दुसरे स्वरूपों को बचा के रखने में जातीय संरचना का निर्माण किया गया, इस पुरे पुनर्गठन में हमेशा ध्यान रखा गया कि हर विधा का शीर्ष व्यक्ति राज्य में उस विधा के वर्ग का प्रतिनिधि हो. राज-मिस्त्री, राज मूर्तिकार, राज स्वर्णकार राज्य के प्रतिनिधि होने के साथ-साथ अपने वर्ग का नेतृत्व भी करते थे. राज्य जनुपयोग के अनुसार उनके आय-व्यय और आर्थिक संसाधनों कि उपलधता सुनिश्चित करता था. यह व्यस्था कालांतर में इतनी सुव्यवस्थित हुई कि मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भी इसे ज्यों का त्यों स्वीकार किया… मुस्लिम वर्ग में भी कर्म आधारित वर्गीकरण भारतीय जाती पद्धति कि देन है. लगातार हो रहे आक्रमणों कि वजह से राज्य कि स्थिति में स्थायित्व का अभाव रहा और राजा युद्ध में लगे रहे. इस वजह से वर्गों का अवनयन हुआ. यहाँ तक भी राज्य आधारित कोई विभेद किसी वर्ग के साथ नहीं हुआ. मुख्य विद्वेष मध्यकालीन इतिहास में शुरू हुए जब देश में अंग्रेजी शासन और चुर्च के षड़यंत्र अपने चरम पर पहुंचे. अंग्रेजी षड्यंत्रकारियों ने इक्का-दुक्का रंजिश या पारस्परिक वैमनस्य को संगठनिक रूप देना शुरू किया. उनके निशाने पर दुर्बल आय वर्ग के व्यक्ति थे जिनको धर्मान्तरण के प्रतिलोभ में राज्य के विरुद्ध खड़ा किया. तब राज्य और जाति के विभेद कि शुरुआत हुई. कालांतर में यह पेरियार आन्दोलन जैसा उग्र रूप धारण कर चूका था. उसके बाद बाबा साहेब का उदय और गांधी जी के प्रयासों से धर्मान्तरण पर कुछ लगाम लगी. लेकिन ता तक राज्य और रियासतें अंग्रेजी शासन के दमन चक्र की वजह से कमजोर हो चुकी थी. वे राज्य या रियासतें दुर्बल वर्ग के पुनर्संयोजन में सक्षम नहीं थीं. फिर रियासतों का पुनर्गठन हुआ. लेकिन आज़ादी के बाद बने हालातों ने भी कोई खास उद्धार नहीं किया, छोटे-छोटे लोलीपोप जैसे आरक्षण इत्यादि से स्थायी समाधान नहीं निकल सके और इससे सामाजिक ताना-बना और ज्यादा दुर्बल हुआ तथा पारस्परिक वैमनस्य ही बढ़ा है. वोट बैंक की राजनीति इसी प्रकार के तुष्टिकरण की देन है..
धार्मिक युद्धों पर बने राष्ट्र जब भारत को मानवता का पाठ पढ़ते हैं तो बहुत ही हंसी आती है. यह उनकी (चर्च और अंग्रेजी देशों ) चालाकी पर नहीं भारतीय धर्म गुरुओं, समाजशास्त्रियों और सामुदायिक नेताओं पर एक करारा प्रहार है कि तुम अपनी सांस्कृतिक विरासत को तजो हम मानवता का छद्म पाठ पढ़ाने आ रहे हैं. पाठ पढो और धर्मान्तरण करो. उद्देश्य सिकंदर से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी तक का एक ही रहा है.. भारतीय प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना. ऐसे में देश कि आर्थिक सामाजिक परिस्थितियों का विवेचन नितांत आवश्यक हो जाता है.
क्या हमे “समानुपातिक लोकतंत्र” का विचार नहीं करना चाहिए?
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