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अल्प-ज्ञान के साथ जंग के मैदान में उतरना बहादुरी नहीं आत्म हत्या है… बाबा जी !!

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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जब राजनीति में मूल्य और विचारों की बजाये पूंजी हावी हो जाती है तो राजनीति, राष्ट्रनीति नहीं एक वेश्या हो जाती है. बाबा रामदेव के आन्दोलन में चला  सरकारी दमन चक्र निश्चय ही लोकतंत्र की हत्या है. यह किसी “गोरे” (स्मरण करें आधुनिक भारत का ब्रिटिश शासन ) या कार्पोक्रेसी  की परोक्ष करतूत लगती है. मुझे बाबाजी और उनके साथियों के साथ जो भी हुआ उससे हमदर्दी है..मेरी संवेदनाएं इस आन्दोलन के हर घायल और भुक्तभोगी के साथ हैं. यह महान देश निश्चय ही मेरे भी बलिदान का हकदार है. लेकिन अल्प-ज्ञान के साथ जंग के मैदान में उतरना बहादुरी नहीं आत्म हत्या कहा जायेगा. . यदि उनको इस स्थिति का अंदाज़ा नहीं था फिर लाखों लोगों को दांव पर लगा के कैसे बैठ गए? और यदि अंदाज़ा था तो उसकी रक्षात्मक रणनीति को क्यों नज़र अंदाज़ किया. ? यदि राजनीति साम, दाम , दंड, और भेद सभी हथियारों का प्रयोग कर सकती थी तो बाबाजी ने उसका व्यूहात्मक प्रतिरक्षा तंत्र क्यों नहीं बनाया. ? मै लाखों लोगों के इस महान आन्दोलन के सरकार द्वारा किये गए बर्बर दमन को बाबा रामदेव जी की बचकानी हरकत का नतीजा ही कहूँगा. यह पूरा आन्दोलन एकल व्यक्ति आधारित नेतृत्व जैसी गलत नीतियों का शिकार हो गया.

पुरे देश को सिर्फ एक मुद्दे पर गुमराह करना देश के लिए ज्यादा खतरनाक है..चाहे वह मुद्दा भ्रष्टाचार ही क्यों न हो. इससे देश की दलीय व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास उठेगा.. कांग्रेस बीजेपी या किसी भी दल को कोई फायदा नहीं होगा… यह एक पूर्वनियोजित प्रयास है देश पर एक क्रांति थोपने का. ऐसा लगता है कि जाने अनजाने बाबाजी भी किसी की गुलेल के पत्थर ही बने  जा रहे हैं.  यदि वास्तव में कोई बड़ा परिवर्तन लाना ही चाहते है हो बेहतर होगा कि  नेतृत्व प्रतिभा विकास के लिए एक जमीनी कार्यक्रम चलायें. जो कि वर्तमान व्यवस्था के भ्रष्ट नेतृत्व के  लिए विकल्प तैयार कर सके. नेतृत्व विहीन क्रांति का सबसे ज्यादा फायदा किसको मिलेगा?

भारतीय जनता चार  वर्गों में है.. अज्ञानी, अल्पज्ञानी, सर्वज्ञानी और विद्यार्थी  , इन चरों  को अगर आप विश्लेषण करिए तो पाएंगे की “अज्ञानी” का इस प्रकार के प्रयासों से कोई खास सरोकार नहीं है उनकी पहली लड़ाई रोटी की है..इसवर्ग से नेतृत्व की उम्मीद करना बेमानी है. “अल्पज्ञानी वर्ग” बहु दलीय व्यस्था में किसी न किसी दल के प्रति हिमायत रखता है. और “सर्वज्ञानी” तथाकथित उदारवादी है और अंग्रेजों की गुलामी के स्वतंत्रत्योतर प्रभाव की उपज है. उदारवादियों को सिर्फ एडम स्मिथ, डार्विन और ओपेरिन का दिया हुआ ज्ञान ज्यादा रास आता है.., इनको भारत की देश, काल और परिस्थितियों से कहीं ज्यादा ब्रिटेन के शाही घराने की शादी के बारे में लिखने बोलने और पढने में मजा आता है. यदि वह इस प्रकार की क्रांति का नेतृत्व करेंगे भी तो देश को कहाँ पहुंचाएंगे?  जहाँ तक दुसरे सर्वज्ञानी क्रांतिकारियों का सवाल है (जैसे बाबा रामदेव ) इन्होने कोई भी स्थायी  दृष्टिकोण नहीं दिया है..भ्रष्टाचार की लड़ाई करते हुए वे एक ऐसे मार्ग पर चले जा रहे हैं जो जिसमे  आगे सिर्फ  अँधेरा  है. देश के आर्थिक, राजनैतिक, सामरिक और सामाजिक स्वरुप को यथावत रखना चाहते हैं या कुछ और करना चाहते हैं यही स्पष्ट नहीं है.  वास्तव में शिक्षा गुणवत्ता सुधार ऐसी किसी भी क्रांति की पहली जरुरत है उसके लिए कौन आगे आया? स्थायी परिवर्तन शिक्षा से आता है उसके लिए किसने प्रयास किया? पिछले आधे दर्ज़न से ज्यादा देशों  की क्रांतियों का स्वतंत्र अध्ययन करके देख लीजिये वे या तो ईस्ट इण्डिया कंपनियों के मालिकों या फिर   अमेरिकी साम्राज्वाद अथवा नाटो (क्लब ऑफ़ रोम ) की देन रही हैं.. फायदा उन देशों के प्राकृतिक  संसाधनों पर कब्जे के रूप में…साइबर युद्ध, नाभिकीय और जैव रासायनिक हथियारों के हमलों साथ वैश्वीकरण, विनिवेश और उदारवाद से करायी गयी तीसरी दुनिया के देशों की  क्रांतियों के सामरिक और आर्थिक लाभों को तथाकथित “विकसित विश्व समुदाय” ने ही साझा किया है.  भारत भी एक प्रचुर प्राकृतिक एवं मानव संसाधन सम्पन्न देश है. एक विशाल बाज़ार भी है..

इस प्रकार की अस्थिरता और विकल्पहीनता  की स्थिति में जब कोई देश मानसिक तौर पर समर्पण करने के लिए तैयार हो रहा हो तो परंपरागत लड़ाइयों का क्या फायदा ? स्वतंत्र रूप से चिंतन करिए तो शायद आप देश को ऐसे ही हालातों में पाएंगे. क्या यह अधिक चिंतनीय नहीं है.

आप सभी लोगों से निवेदन है कि किसी भी हालत में इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिंसा को बढ़ावा न दें, सभी बेहतर होगा हम इसको किसी भी कीमत पर प्रतिहिंसक न होने दें.

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