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जरूरत क्रान्ति की पूरी किसानी की !!

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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अन्ना हजारे और उनकी टीम पर एक व्यंग्य कसा जा रहा है कि पूरा देश साथ है तो  चुनाव लड़कर संसद में क्यों नहीं आते? बाबा रामदेव भी पिटने से पहले अपनी हिट मुद्रा में यही कहते पाये गये कि न उन्हें कोई पद चाहिये न कुर्सी चाहिये और न ही वह कभी चुनाव लड़ेंगे. अन्ना या बाबा कोई नये नहीं हैं जो देश को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके पास अभूतपूर्व जनसमर्थन है या यूं कहिये  पूरा देश उनके साथ है बावजूद इसके वे सत्ता के लोभी नहीं हैं. जय प्रकाश नारायण और महात्मा गांधी पहले ही खुद को सत्ता से दूर रखकर राजनैतिक बदलाव के लिये प्रण-प्राण से लगने वाले और सत्ता प्राप्ति के बाद मची किच-किच में प्राण गंवा देने वाले उदाहरण के रूप में देश के सामने हैं. लगता है अन्ना या बाबा अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रीय राजनीतिक संतों की गति से यही सन्देश प्राप्त कर सके कि जो सुदृढ़, ईमानदार और सद् चरित्र होते ही वे सत्ता से दूर रहते हैं. मेरी दृष्टि में आज यह  सोच उचित नहीं रह गई. गांधी अगर आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर नहीं विराजे तो देश कोई शीर्ष पर नहीं जा पहुंचा. बल्कि रसातल में चला गया. हालत यह हो गई है कि लोग आज यह कहते कतई नहीं हकलाते कि इस आजादी से बेहतर तो गुलामी  थी.

अक्सर कहा जाता है कि अगर नेहरू की जगह पटेल या जिन्ना पहले प्रधानमंत्री होते तो भारत की तस्वीर कुछ और होती. लेकिन मैं कहता हूं कि अगर भारत का पहला प्रधानमंत्री मोहनदास करमचंद्र गांधी होता तो निश्चित ही देश की तस्वीर कुछ और होती. आपातकाल के दौरान गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुये जयप्रकाश जी भी राजनीतिक संत की कोटि में जा बैठे. उन्होंने भी संघर्ष के बाद हाथ आयी सत्ता पर सवारी नहीं गांठी. नतीजा यह हुआ कि देश में पहले सत्ता परिवर्तन के परिणाम इस कदर शर्मनाक रहे कि लोग आज यह कहते पाये जाते हैं कि इससे तो बेहतर इमरजेंसी थी. यहीं अगर इमरजेंसी जंग के विजेता जयप्रकाश जी देश के प्रधानमंत्री बने होते तो मोरार जी के नेतृत्व वाली गैर कांग्रेसी सरकार कुंजड़ों की तरह लड़-भिड़कर तहस-नहस न हुई होती. किसी भी आंन्दोलनों में आम समर्थकों का विश्वास किसी नेता विशेष पर टिका होता है. उसके व्यक्तित्व और कृतित्व से आन्दोलन की भावना बनती है जिसके पीछे भीड़ चलती है. आजादी की लड़ाई में गांधी के पीछे था देश. ऐसे ही आपातकाल की लड़ाई में जयप्रकाश के साथ था देश और आज भ्रष्टाचार से जब जंग छिड़ी है तो देश अन्ना के साथ भी है और बाबा के साथ भी. आन्दोलनों के नायकों के पीछे सहनायकों की भी बड़ी भूमिका होती है. ये सहनायक नायक के प्रति तो पूर्ण समर्पण रखते हैं लेकिन उसके अतिरिक्त किसी और को अपना नेता मानने में उन्हें दिक्कत होती है.
गांधी और जयप्रकाश को दिल और दिमाग में रखकर निस्वार्थ भाव से देश सेवा के लिये निकलने वालों में सत्ता संचालन के प्रति निष्प्रभ भाव अब कोई सफल सूत्र नहीं रहा है. जिस व्यक्तित्व के प्रति सभी का समर्थन भाव हो नेता उसे ही होना चाहिये चाहे आन्दोलन का, चाहे सत्ता का. फिर एक बात और जब शेर की सवारी करनी नहीं तो जंगल में घूम-घूम कर शेर के सामने जाने का क्या मतलब. शेर आ जायेगा जिसे सवारी करनी आती है वो सवारी करेगा नहीं तो बाकी शेर ही करेगा.
यानी  शेर खा जायेगा और इस देश को सत्ता  ही खाये जा रही है. अन्ना जी, बाबा जी या और कोई अकुलाहट भरा चरित्र जो देश के किसी कोने में अंगड़ाई ले रहा हो तो वो भी आज की तारीख में संसद में बैठे हुये लोगों की इस चुनौती पर ताल ठोंके कि जब चुनाव आयेगा तो उस मैदान में भी देखा जायेगा.
फिर एक बात और भी है जो काफी हद तक सही भी है कि व्यवस्था में खामियां निकालना या उसे सत्ता बदलना ही केवल नेतृत्व प्रदान करना नहीं है. नेतृत्व का मतलब है संघर्ष के बाद बदलाव की सत्ता को सही रास्तों पर कसी लगाम वाली घोड़ी की तरह सरपट दौड़ाना.
अन्ना हजारे या रामदेव सरीखे लोग जब चुनाव न लडऩे की वचनबद्धता के साथ चुने हुए प्रतिनिधियों को उखाडऩे की बात करते हैं तो ये समझ नहीं आता कि ये लोग उखाडऩे के बाद करेंगे क्या… उगायेंगे क्या…. देश के भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्तिकारियों तुम्हें पूरी किसानी करनी होगी केवल खराब $फसल उखाड़ फेंकने से कुछ नहीं होगा. अगर नयी नस्ल के उन्नत बीज नहीं बोये तो….
साभार: प्रमोद तिवारी

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