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धर्मान्तरण सांस्कृतिक और वैचारिक आतंकवाद है..!!

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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धर्मान्तरण एक प्रकार का सांस्कृतिक और वैचारिक आतंकवाद है. सनातन जितनी वैज्ञानिक और प्रामाणिक जीवन पद्धति कोई नहीं है. इसकी प्रमुख विशेषता है कि मानव जीवन के सर्व-भौमिक तथ्यों का सार और देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार उसकी व्याख्या. तथ्यगत समीक्षाएं स्पष्ट करती हैं कि समस्त विश्व कि सभ्यताओं का उदय इन्ही सार्वभौमिक तथ्यों को मूल में रख के ही हुआ. लोकमान्य तिलक (1905), पंडित कोटा वेंकटचेल्लम (1953 ) , श्रीनिवास किदाम्बी इंडियन हेरिटेज रिसर्च फौन्डेशन, ओंटारियो कनाडा. (2005). जैसी आधा दर्जन से अधिक वैज्ञानिक विवेचनाएँ इसी तथ्य को सिद्ध करती हैं…कि वैदिक काल की वैज्ञानिक विवेचना के अनुसार अन्टार्क्टिका महाद्वीप से हिंद महासागर तक सनातन सभ्यता का विस्तार रहा है. इसीलिए विश्बंधुत्व जैसे सिद्धांतों का उद्भव भी इसी व्यवस्था में हुआ. इसका अर्थ यह हुआ कि जब सभी सभ्यताओं के मूल में सनातन जीवन पद्धति है तो फिर धर्मान्तरण कि आवश्यकता ही क्या है? हाँ वर्तमान धार्मिक व्यवस्थाएं धर्म के स्वतंत्र और वैज्ञानिक सिद्धांतों कि बजाये धार्मिक ठेकेदारों के पूर्वाग्रहों, आर्थिक सामरिक कारकों और जनमानस के अल्पज्ञान के सन्दर्भ में ही फलीभूत होती हैं इसलिए इन सभी में व्याप्त विसंगतियां चिंतनीय हैं. इन्ही विसंगतियों कि वजह से वैश्विक सन्दर्भों में राजनैतिक उठापटक होती रहती हैं. धर्मान्तरण एक हथियार बन चुका है. धर्मान्तरण जैसे सांस्कृतिक और वैचारिक आतंकवाद की वजह विश्व राजनैतिक सन्दर्भों में आर्थिक-सामरिक ही होती हैं.

सत्य साईं बाबा ने दुनिया के १०० से ज्यादा देशों में सनातन संस्कृति का डंका बजाया. संगठित तरीके से स्थापित करने में सत्य साईं बाबा, भक्ति वेदांत प्रभुपाद, स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती जैसे महापुरुषों का योगदान निस्संदेह सर्वोत्तम है. बाबा रामदेव और दीपक चोपड़ा ने भी योग जैसे सांस्कृतिक विरासत और आयुर्वेद के लिए विश्व पटल पर हस्ताक्षर जरुर किये. यद्यपि इन महापुरुषों के किसी भी प्रकार के कार्य किसी के लिए अहितकर कदापि नहीं रहे लेकिन यह सत्य है कि शर्म-निरपेक्ष क्षमा कीजियेगा धर्म निरपेक्ष सरकारों ने इसके लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया.

सरकारें तो सरकारें हैं… अभिव्यक्ति की आज़ादी का बोझ लिए मीडिया भी विदेशी मीडिया का पिछलग्गू हो चला, आँखे बंद करके “खाता न बही जो कही वो सही” की तर्ज़ पर चर्च समर्थित विदेशी मीडिया ने भारतीय धर्मगुरुओं को बदनाम करने की जो चाल चली उसको ज्यों का त्यों प्रसाद स्वरुप अपनाया और उसी पूर्वाग्रह को जनमानस के लिए ब्रेकिंग न्यूज़ बना के पेश किया. ये मीडिया महाधिपति पता नहीं किस अभिदृष्टि से देखते हैं, इस तथ्य को नगण्य मानते हुए जीते हैं की मीडिया और फिल्म जनमानस नियंत्रित करने या विचार देने के यन्त्र की तरह भी प्रयोग किया जा सकता है. विश्व राजनैतिक परिदृश्य में इसके अनगिनत उदहारण देखने को मिल जायेंगे. कुल मिला के मीडिया का वैश्वीकरण धर्म और उन धर्म गुरुओं के लिए निहायत ही खतरनाक साबित हुआ है, जो सार्वभौमिक तथ्यों पर आधारित जीवन पद्धति के लिए प्रयासरत रहे हैं.

अब जनमानस को यह तय करना होगा कि धर्म और जीवन पद्धति के निर्धारण के लिए तार्किक और सार्वभौमिक तथ्यपरक सिद्धांतों का वरण करके आत्मसात करना बेहतर है या मीडिया और धर्म के तथाकथित ठेकेदारों का बंधुआ वैचारिक मजदूर बनना.

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