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तेल का खतरनाक खेल और आम भारतीय जनता

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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कुछ  सूत्र कहते हैं कि अलकायदा का अस्तित्व कब का ख़त्म हो गया था. और यदि इसको जीवित रखा या रहने दिया तो उसके पीछे का उद्देश्य  तेल का खेल और विश्व व्यवस्था   में   रणनीतिक   सेंध   लगाना  ही  था. उपलब्ध आंकड़े कहते हैं कि इस अल कायदा नाम का मुखौटा लगा के अमेरिका ने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों वाले राष्ट्रों पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से कब्ज़ा किया और एशिया में 330 से अधिक सामरिक ठिकाने बनाये.  तेल के सबसे बड़े भंडारों के कब्जे का नतीजा पूरी विश्व कि अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ रहा है. यही वजह है 10 सेंट प्रति बैरेल उत्पादन  लागत वाला  कच्चा तेल अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 110 डॉलर प्रति बैरेल बिकता है. अगर इतना बड़ा फायदा होता है और आप सामरिक रूप से सशक्त हैं तो युद्ध के लिए सिर्फ एक बहाने कि ही तलाश करनी होगी. इसी विश्व बाज़ार व्यवस्था का नतीजा भारतीय जनता को भी उठाना पड़ रहा  है. आंकड़े कहते हैं कि बाम्बे हाई, कृष्ण गोदावरी बेसिन, मंगला ऑयल फील्ड  और दुसरे  क्षेत्रों से निकलने वाला कच्चा तेल जो कि देश कि 30 प्रतिशत  से ज्यादा जरूरतें पूरी कर सकता है. उसका मूल्याङ्कन भी सरकार अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के मुताबिक ही करती है. मतलब 10 सेंट प्रति बैरेल की कीमत वाला कच्चा तेल सरकार किसी भी कंपनी से 110 डालर प्रति बैरेल ही खरीदेगी. क्या यह विश्व बाज़ार व्यवस्था भारतीय आर्थिक  विनियमन संस्थानों  से भी ऊपर हो सकती है? विश्व बाज़ार व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंसने से पूर्व सरकार ने अपनी क्या प्राथमिकतायें निर्धारित की ये तो राम ही जानता है लेकिन इरान से होने वाली तेल सप्प्लाई अगर सरकार चाहे तो 20 -30 % कम कीमत पर मिल सकती है. शर्त सिर्फ इतना ही है कि उसे अमेरिका का 54 वाँ राज्य बनने कि अभिलाषा छोडनी होगी. डालर जो कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा है उसकी बजाये इरान या भारतीय मुद्रा में विनिमय करके विनिमय  की दलाली की तो बचत होगी ही साथ ही साथ विदेशी विनिमय के भारी-भारी करों और संस्थागत या व्यक्तिगत दलाली कम होने के भी मौके प्रत्यक्ष तौर पर मिलेंगे.  और यदि किसी भी विदेशी वजह से अगर हम ऐसा   नहीं कर सकते    तो किस    मुह    से हम  खुद को संप्रभु राष्ट्र कहते हैं?

हमारे अर्थशास्त्री जाने कौन सी गणित से आम जानता को भरमाने वाले तर्क और तथ्य पेश करते हैं.  हकीकत से दूर जनता सिर्फ सोनिया, मनमोहन या किसी शासक दल को ही सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगती है. वैसे संशय करना बुरा भी तो नहीं है क्योंकि हमारा फर्जी डाक्टरेट प्रधान मंत्री कोई घोड़े का चश्मा तो पहन के पढता नहीं होगा. इतने दिन  विश्व बैंक की नौकरी करने के बाद भी अगर विश्व बाज़ार व्यवस्था के भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुप्रभाव नहीं पहचान सका तो  सकता है की इसके पीछे की सच्चाई छिपाने के लिए परदे   बनाने में ही दिन रात बिताता हो. खैर   इसका कारण जो भी हो विपक्ष के नेता भी कम बड़े अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री नहीं कहते खुद को. क्या वे भी घोड़े का चश्मा पहन के राजनैतिक हाइवे पर दौड़ते हैं. क्या उनको भी ये तेल का खेल नज़र नहीं आता..?

अब  आइये हम आम जनता की परवाह करते हैं. मैंगो मैन , कामन  मैन यानी आम भारतीय जनता से यह खेल सब इतना दूर रखा जाता है की दर्द से वह करह ले रो ले लेकिन उसे दवा या इलाज पाने के लिए प्रत्यक्षा तौर पर किसी को दोष देने का अधिकार नहीं है.  दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े आश्चर्यों  में से एक यह भी है कि कभी  भी किसी भी विदेश निति  के लिए खुली  बहस  नहीं होती है. सर्वेक्षण और जनमत संग्रह तो दूर की कौड़ी है. . देश की विदेश नीतियों और अर्थव्यवस्था में आम जनता का कोई सीधा  सरोकार नहीं है. उसको एक बार भुगतने से मुक्ति नहीं है. उसको लगातार अगले चुनाव तक तो झेलना ही होगा. उसके बाद भी जिसको चुनो उसका खामियाजा भुगतो.

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