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अथ श्री फेसबुक कथा :फेसबुकीय परिवर्तन

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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जहाँ  तक  मुझे  समझ  आता  है  की  पहली  संविधान  सभा  में  जनभावनाओं का  पूरा  ध्यान  रखा  गया  था . हर  वर्ग  और  हर  तबके  को  महत्व  दिया  गया . समयांतर  में  जनसामान्य  का  प्रत्यक्ष  हस्तक्षेप  घटा  ही  गया . वह  इसिये  क्योंकि  समुदाय   के  लोगों  से  नेतृत्व  को  ही  राजनीती  का  अंतिम  सत्य  मान  लिया . शिक्षा  की  दुर्गति  का  अंदाज़ा  इस  बात  से  लगाया  जा  सकता  है  की  संविधान  प्रदत्त  अधिकारों  को  भी  लोग  ठीक  से  नहीं  जानते . बसिक  सिविक  सेंस  का  लेवल  यह  है  की  अन्ना  या  रामदेव  जैसा  कोई  महानायक  देख  के  ही  लोगों  को  अधिकार  कर्त्तव्य  और  संविधान  का  ख्याल  आता  है . इसी  के  चलते  सत्ता  और  शाकी  का  इतनी  बुरी  तरह  से  केन्द्रीकरण  हुआ  है  की  राजनीती  की  जगह  परिवारवाद  ने  ले  ली  है . इन्ही  सब  खामियों  के  चलते  शिक्षा  और  राजनीती  का  झुकाव  पूंजी  की  तरफ  हो  चला  है . शिक्षा  के  इस  बड़े   वर्ग  विभेद  में  अगर  इन्टरनेट  यूजर    की  बात  करें  तो  यहाँ  धयन  रखना  आवश्यक  हो  जाता  है  की  इन्टरनेट  के  भारतीय  लोकतंत्र  में  प्रवेश  करने  का  प्रथम  उद्देश्य  सेक्स  बेचना  हुआ  करता  था जो की आज तक कायम है.. प्रारंभिक  चरण  में  इन्टरनेट  यूजर्स    की  संख्या  में  70-80% लोग  विद्यार्थी  होते  थे  और  उसका  नतीजा  5 करोड़  से  ज्यादा  पोर्न  साइट्स   पैदा  हुईं . ऑरकुट , फसबूक  आने  के  बाद  कुछ  परिदृश्य  जरुर  बदला  है  लेकिन  आज  का  लगभग 8 करोड़ इन्टरनेट  यूजर  भी  उसी  पीढ़ी  का  विकसित  स्वरुप  है . नतीजा  आप  देख  सकते  हैं  की  तर्कसंगत  और  तथ्यगत  विमर्श  पर  अधिकांशतः  सिर्फ  लेके   करते   हैं  और  वे  शायद  उससे  ज्यादा  कुछ  कर  सकने  की मानसिक  स्थिति  में    होते ही नहीं. अनुसन्धान  या  खोजपरक  चिंतन  और  विमर्श  तो  स्वप्न  जैसा  है . इसकी  बड़ी  वजह  यह  है  की  FB और  दूसरी  सोसिअल  नेट्वोर्किंग  साइट्स  क्षणिक  प्रतिक्रिया  को  ही  बढ़ावा  देती  हैं  और  व्यक्ति  को  सामाजिक नहीं सिर्फ अंतर्मुखी   बनाती  हैं . यद्यपि   कालांतर   में  बहुत   से  स्थापित   बुद्धिजीविओं   ने  भी  सोशल    नेट्वोर्किंग  साइट्स    का  सानिध्य  स्वीकार  किया  है  लेकिन  उनकी  प्राथमिकतायें  अपने  व्यवसाय  या  विशिष्ट  वैचारिक  प्रतिष्ठान  के  प्रति  ही  होती  हैं . जहाँ  तक   जनमत  संग्रह  या  जन  सर्वेक्षण  का  सवाल  है  तो  यह  कितने लोग जानते हैं की हमारी  उच्चतम  संस्थाएं  (जैसे लोकसभा ) समय -समय  पर  करती  रहती  हैं . और  बहुधा  वे  अख़बारों विज्ञापन द्वारा लोगों के विचार आमंत्रित करती है और परिणामों को अख़बार  में  प्रकाशित  भी  करती  हैं . साथ  ही  साथ  इससे  सम्बंधित  दस्तावेज  उनके  वेबसाइट  पर  ऑनलाइन  पड़े   भी  रहते    हैं . लेकिन  सम्बंधित  संस्थानों   की  वेब-साइट्स    पर  121  करोड़  की  आबादी   में प्रतिदिन  औसतन   100-200 लोग  ही  विजिट   करते  हैं . ऐसे   में  बिना  किसी  ठोस   रणनीति   के  यदि  ऐसा  कोई  सर्वेक्षण  करते  भी  हैं  तो  उसका  भी  वही  हाल  होगा  जो  वर्तमान सरकारी  वेब-साइट्स    का  हुआ   है . ऑनलाइन सर्वेक्षणों से कोई बदलाव होने  को  कहें  तो  जरुर  हो  सकता  है  लेकिन  लोगों  के  सामान्य  ज्ञान  के  स्टार  का  समय  होना  पहली  शर्त  होनी चाहिए . नहीं  तो  प्रतिक्रियाएं  कुछ  ऐसी  भी  मिल  सकती  हैं … “kill all capitalists” or “legalise marijuana.” ऐसे  में  आप  क्या  कीजियेगा ?

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