उफ़ ये मीडिया…..अब तो भैया आप लोग ही संभालो !!!!!
जहाँ तक मीडिया के विश्वराजनैतिक सन्दर्भों में प्रत्यक्ष प्रयोग (इस्तेमाल ) करने का सवाल है तो इसके लिए लिखित सन्दर्भ मिलता है अमेरिकी खुफिया एजेंसी सी. आई. ए. के दस्तावेजों में जहाँ आपरेशन मोकिंग बर्ड (operation mocking bird) के नाम से 1948 में एक प्रोजेक्ट शुरू किया जिसका उद्देश्य सिर्फ मीडिया को आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक तरीकों से अपने अनुसार लिखवा कर उससे सामाजिक मनोविज्ञान को समझना और नियंत्रित करना था. इस प्रोजेक्ट में अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने विश्व राजनैतिक सन्दर्भों में बहुत से चैनलों, अखबारों, फिल्म-सिनेमा के माध्यम से बहुत सारे मुद्दों को बनाया लोगों में जनमत संग्रह करवाया और संयुक्त राष्ट्र संघ के मनमोहनों की तरफ से व्यापारिक और आर्थिक हितलाभ साधे. कालांतर में विश्व व्यापार व्यवस्था की स्थापना इन्ही हथकंडों से आगे बढ़ी. आज जबकि बहुत से विदेशी चैनलों ने मुख्यधारा की भारतीय मीडिया पर कब्ज़ा कर लिया है तो हमारी राजनैतिक प्रणाली का चिंतित होना स्वाभाविक है, लेकिन क्या आश्चर्य नहीं है कि राजनैतिक तंत्र स्वयमेव ही विदेशी मीडिया के सामने बकरी बना नज़र आता है…??
इस मीडिया ने खबरों का बाजारीकरण इस कदर कर दिया है कि देशभक्ति और आज़ादी के मायने तक बदल गए हैं. दृश्य -श्रृव्य मीडिया ने हर सूचना को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाये बिना इसका प्रतुतिकरण निरर्थक कर दिया है. इस तरह के “मूतो कम हिलाओ” ज्यादा वाली ख़बरों से मुद्दों पर कोई फर्क पड़ा हो या न पड़ा हो. ख़ास तौर पर नवोदित बुद्धिजीवी वर्ग यानी इस मीडिया की बनायीं आम जनता जरुर “मूतो कम हिलाओ ज्यादा” वाली ख़बरों की अभ्यस्त हो चली है. देश के सामाजिक मनोविज्ञान पर मीडिया के इस प्रभाव की दुर्दशा का आलम यह हो चला है की अखबारों का पाठक वर्ग जनसँख्या के अनुपात में नहीं बढ़ा. नए अखबार तो ऐसा लगता है कि बंद होने के लिए ही शुरू हुए. लोगों की रूचि अध्ययन और खोजपरक पठन-पाठन में कम से कमतर ही हुई है. नतीजा बहुत से समीक्षापरक लेख सरकारों या अधिकारियों को धमकाने में भले ही प्रयोग हो जाएँ लेकिन आम जनता पर उसका प्रभाव नगण्य ही नज़र आता है. वजह जनसामान्य का मनोविज्ञान नए दौर की दृश्य श्रृव्य मीडिया ने लगभग क्षणिक बना दिया है. दूरदृष्टि सिर्फ अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों की रखैल बनी लगती है. जनसामान्य को भी देश को छोडिये अपना भविष्य भी वही बेहतर नज़र आने लगा है जो नए दौर की दृश्य श्रृव्य मीडिया परोस रही है. नए दौर की दृश्य श्रृव्य मीडिया ने देशभक्ति को भी पेशाब के झाग सरीखा बना दिया है. जो सिर्फ तभी तक नज़र आता है जब तक मीडिया क्रिकेट का विज्ञापन दिखाए, भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच दिखाए या फिल्मे जो देश या समाज के मुद्दों पर बनी हों….
अब देखते हैं कि हमारा पाठक वर्ग कितना ख्याल रखता है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद कि नयी मीडिया ने मुद्दे कौन से उठाये और उनसे किन-किन कंपनियों को फायदा हुआ?
तेल साबुन, और गृहस्थी का सामान तो आप लोग स्वयं ही देख रहे होते हैं….. आइये एक नज़र डालते हैं की मीडिया के चेहरे और उसके अप्रत्यक्ष प्रभावों पर….
सेव फ्यूल : मतलब इंधन की कीमतें बढ़ने वाली हैं.
सेव वाटर: मतलब देश में पानी की कमी हो चली है. बाँध बनेंगे तभी पानी की सप्लाई हो पायेगी. नदियों पर बने बांधो ने पर्यावरण और जल स्तर की क्या हालत की आप सभी जानते होंगे.
सेफ वाटर: मतलब पिने का शुद्ध जल अब नहीं बचा, आर्थिक उदारीकरण के बाद पीने के पानी का बाज़ार बना 18000 करोड़
सेव पॉवर: मतलब देश में बिजली व्यवस्था में विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करिए इस देश में बिजली या बिजली का गुणवत्तापरक सामान बनाने वाला कोई नहीं बचा.
जनलोकपाल: मतलब एक कानून जादू की छड़ी है घुमाते ही सब चंगा हो जायेगा.
….. और भी पता नहीं कितने बाजारवादी हथकंडे अपना के भोली-भली जनता से देश हित/अहित करवाने में लगे हुए हैं…. अब आप लोग ही संभालो…!!
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