राष्ट्रवाद बन चुकी है बनियों की दूकान में मिलने वाली रेवड़ी जो की मीडिया या अख़बारों में परोसे जाने से ही स्वादिष्ट बनती है. स्थापित बनियों में सफ़ेद टोपी वाले या हाफ पैंट वाले हैं.. लेकिन ये देसी दुकानदार हैं जो विदेशी मुलम्मा न चढ़े उसका बहुत ध्यान रखते हैं. ये आध्यात्मिकता के दिखावे भी बहुत बढ़िया करते हैं. इनसे भी ज्यादा शातिर लाल झंडे वाले हैं हो तथाकथित मानवता के स्वनामधन्य ठेकदार बना दिए गए हैं. इनको विदेशी टिप (बैरे को दिए जाने वाले दान ) लेकर विश्व-बंधुत्व की बातें करने में आत्म-बोध होता है. ये बात करते हैं विश्व बंधुत्व की लेकिन शायद यह भूलने के बाद या भूल जाने का दिखावा करते हुए कि “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम, उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम”. यह भारतीय राजनीति का दर्शन है. इनके उत्पाद हैं नव-निर्मित उदारवादी जो की उदारवाद के विरोध में कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते. राष्ट्रीय अस्तुत्व और महत्व के लिए किसी विदेशी व्यवस्था से तुलना करने का सहारा लिए बिना इनकी विकासवाद की परिभाषा नामुमकिन जान पड़ती है. विदेशी प्रमाण-पत्र प्राप्त ये महानुभाव अब सुशासन या सुयोग्य भारतीय नेतृत्व के लिए भी विदेही प्रमाणपत्रों को अनिवार्य बताने लगे हैं. इन सभी के साथ है बनिए की गुलाम कलम या कलमकार जो कि अपनी सीमाएं तय कर चुकी है और शायद क्षमताएं भी. इनसे अलग एक और समूह है वे उस नए तबके कि परिकल्पना के स्वरुप मात्र कहे जा सकते हैं जो आत्म-मुग्ध है. किसी भी कीमत पर उनमे प्रशंसा (लोकेष्णा ) की इतनी प्रबल चाह है कि वे आम जनता को हमेशा निम्न-दृष्टि से देखते हुए देशे या सुने जा सकते हैं. ये है वर्तमान भारत का बुद्धिजीवी समूह विन्यास.
अब हम बात करते हैं देश दुनिया की.. देश की परिभाषा भारतीय शिक्षा व्यवस्था की प्रारंभिक, वुर्व-माध्यमिक और माध्यमिक यहाँ तक उच्चतर और स्नातक कक्षाओं के पाठ्यक्रमों से नदारद है. शायद यह वजह हो सकती है की व्यक्ति का सामाजिक या राष्ट्रीय विवेचन उस व्यक्ति की एक स्व-परिधेय अभिदृष्टि से ज्यादा बड़ा नहीं बन पाता. नतीजा व्यक्ति की जीवन प्राथमिकताएं पूर्व-स्थापित मानकों के सन्दर्भ में स्व-परिधेय अभिदृष्टि से प्रेरित होती हैं. उनके केंद्र में उसका उद्देश्य नहीं उसकी मुलभुत आवश्यकताएं होती हैं. यह शासन प्रणाली की नाकामी है. शिक्षा व्यवस्था हमारे नागरिकों को कामातुर पशु या मनुष्य जैसा तो बना रही है लेकिन इस काम में प्रेम नहीं है. “निद्रा, भोजनम, मैथुनम” के सिवा जीवन की प्राथमिकतायें क्या है यह तय करने में व्यक्ति एक चौथाई जीवन व्यतीत करता है. अगला एक चौथाई उसकी प्राप्ति लिए संघर्ष करते हुए. यद्यपि मानव जीवन की प्राथमिकताएं मनुष्य की मुलभुत आकांक्षाएं (वित्तेष्णा, पुत्रेष्णा या कमेष्णा और लोकेशन ) ही तय करती हैं लेकिन ये प्राथमिकतायें भी मृग मरीचिका मात्र नज़र आती हैं. जीवन मूल्य और सिद्धांत उद्देश्य विहीन नागरिक जीवन में “निद्रा, भोजनम, मैथुनम” से अधिक कुछ नहीं नज़र आता. ऐसे में बंधुत्व, दया, क्षमा, प्रेम, दान और सम्दार्शिता की आशा निरर्थक जान पड़ती है. यह है भारत का मतदाता वर्ग.
इन्ही के बीच में गुजरते हुए अक्सर सोचा करता हूँ की मै कौन सा भारतीय हूँ? क्या राष्ट्रवादी भारतीय होने के लिए इन स्थापित बनियों की दुकान से प्रमाण पत्र लेना और अखबारी ढिंढोरा पीटना अनिवार्य है.?
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