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//इस कानून में सेना और सशस्त्र बालों को ये विशेषाधिकार है की वो कभी भी किसी की कहीं भी तलाशी ले सकें. इतना ही नहीं किसी भी भीड़ पर गोलियाँ चला सकें.// AFSPA को ये विशेषाधिकार इसलिए दिया गया था क्योंकि जब यह कानून लागू हुआ तब भारत गुट निरपेक्ष आन्दोलन कि अगुआई कर रहा था. षड्यंत्रकारी विश्वराजनीति और षड्यंत्रकारी हस्तक्षेपों से बचने और दक्षिण एशिया को इससे बचाने के लिए यह आज भी जरुरी है. और यदि ऐसा नहीं होता है तो इस्लामिक आतंकवाद की आड़ में ईस्ट इंडिया कंपनियों के बच्चों के सांस्कृतिक आतंकवाद और आर्थिक आतंकवाद से सिर्फ आम जनता के हितों का नुक्सान ही नहीं देश की संप्रभुता के लिए खतरा होना लाजिमी है. AFSPA के लिए विशेष तौर पर कश्मीर में हो रहे विभेदों के लिए आग में घी का काम हाफ पैंट वाले और लाल झंडे वाले भी करते हैं. जाने-अनजाने में वे भी अलगाववादियों को ही शह देते जा रहे हैं. और उनके पुरस्कारों और छपास कि लत मुद्दे को गंभीर से गंभीरतम बना रही है. इसी मुद्दे पर उनका हिमायती मीडिया जनमानस के लिए राष्ट्रवाद और विश्वबंधुत्व बेच रहा है.
यही विदेशी कलमकार मुअम्मर गद्दाफी को सेक्स का सबसे बड़ा पुजारी बताते हैं.. यही कलमकार इस्लामिक गणराज्य इरान में महिलाओं की दयनीय स्थिति का बाजा बजाते हैं, पहले बताते हैं की इराक में जनसंहारक हथियार हैं उसके बाद कोई जवाब नहीं होता. यही कलमकार AFSPA को मानवाधिकार के खिलाफ सबसे बड़ी चुनौती बताते हैं… क्यों?
चुनौती विदेशी मीडिया के कलमकार हैं जो जैसा लिखवाया जाता है वैसा लिख देते हैं और भारतीय मीडिया बिलकुल आँखें बंद करके “खाता न बही जो कही वो सही” की तर्ज पर गलत को भी सही लिखने में कोई ग्लानि महसूस नहीं करता. AP , Reuters , BBC , जैसी व…िदेशी खबरिया समूह ही खोजपरक खबरें क्यों लिखते हैं? और जब वो लिखते हैं तो कश्मीर को जीसस और मूसा की कब्रगाह क्यों बताते हैं? सिर्फ BBC को ही शर्मीला इरोम के साथ इतनी हमदर्दी क्यों है? वही नाट्य रूपांतरण को भी सच से कहीं ज्यादा बड़ा करके क्यों दिखाते हैं?
सशस्त्र सैन्य बलों के दर्जनों जवानों के साथ मैंने स्वयं व्यक्तिगत विमर्श किया है. वे कहते हैं की सीमांत प्रदेशों में लोग हमे बहुत कुछ मानते हैं. और इतना लगाव रखते हैं की अगर कैंप के बाहर रुकना पड़े तो वे हमारा अपनों जैसा ख्याल भी रखते हैं. … यह निष्कर्ष निकालने के लिए कि इस प्रकार के वैचारिक विभेद से विदेशी समूहों को ही फायदा होता है. कश्मीर में हेनिंग बोळ फ़ौंडेशन जैसे विदेशी संस्थाएं एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्युमन राइट्स वाच जैसे तथाकथित मानवता के अंतर्राष्ट्रीय ठेकेदार और विदेशी मीडिया कि दखलंदाज़ी न हो तो कश्मीर और कश्मीर के लोगों को सैन्य अभियानों से कोई खास आपत्ति नहीं है. लेकिन अलगाववादियों और उनके हिमायतियों कि यह विदेशी फ़ौज ठिकाने लगे तब न.
लग्गीबाजों और कथाकार कलमकारों दोनों के लिए एक तरह से देखा जाये तो यह हालात चुनौती जैसे ही हैं. ऐसा भी नहीं कि वे यह चुनौती लेना नहीं चाहते. लेकिन खबर और खबरों कि प्राथमिकता उनका मालिक बनिया तय करता है. जिसको कश्मीर, नेफा, और असम के नक़्शे से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण कागज अपनी बैलेंस शीत में नज़र आता है. उसका क्या कीजियेगा?
शायद इसकी वजह यह भी है की हमारे देश में ग्लोबलाइजेशन के आने के साथ जनमानस की डिक्शनरी में विश्व-राजनीति (Geopolitics) नहीं आई. और हमारे सामाजिक अध्ययन के दायरे छोटे होते गए. जनता कि डिक्शनरी तो मीडिया बनाती है. मीडिया लिखना शुरू कर दे तो जनता भी जागरूक हो ही जाएगी.
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