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रंग बिरंगे पाउच के पीछे का तबाह बचपन….. १५ मिनट एक बच्चे के साथ

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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ये तस्वीर आज सुबह मेरे ऑफिस के नीचे की हें .. हर रोज की तरह आज सुबह जब में ऑफिस पार्किंग पंहुचा तो देखा कि एक छोटा सा बच्चा जिसकी उम्र मुस्किल से ७-८ साल कि होगी उसने थोड़े से गुटखे के पेकेट और सिगरेट के पेकेट को वही सड़क के किनारे पर सजाया हुआ था .. और पास ही उसकी छोटी बहेन जिसकी उम्र २ साल होगी, लेटी हुई थी .. बच्ची बार बार नाकाम कोशिस कर रही थी अपने पैर के जख्म पर से मक्खियों को उड़ाने की जो उसे बार बार परेशान कर रही थी..उसकी आँखों में भी कोई दिक्कत थी .. बच्चे ने दवाई ली हुई थी उसकी आँखों में डालने के लिए … पूछने पर अपना नाम अशोक और उस मासूम गुडिया का नाम खुसबू बताया … बताया की आज ही उसने ये गुटखा और सिगरेटे बेचना शुरू किया हे .. और वही पास में ही झुग्गी में अपनी माँ और पांच भाई बहेनो के साथ रहता हे .. पिताजी नही हे .. इसलिए पढ़ नही सकता क्यूकी घर की जिम्मेदारी अकेले माँ नही संभाल सकती … माँ कूड़ा बीनने का काम करती हे .. पास में ही झाड़ू लगा रहे २ सफाई कर्मी जोकि उसके साथ गाली देते हुए मजाक भी उड़ा रहे थे कि जितने गुटखे ये बेचेगा उससे ज्यादा खुद खा लेगा.. उन्होंने बताया की इसकी माँ खुद जितना कमाती हे शाम को दारु पी लेती हे.. और इसे और इसके छोटे भाई को भी पिला देती हे … सुनकर झटका लगा कि अपने साथ साथ बच्चो का भी भविष्य ख़राब कर रही हे .. अशिक्षा और अज्ञानता इन्हें कही का नही छोड़ेगी.. .. एक तो गरीबी और ऊपर से इतनी नासमझी.. वो बच्चा चुप चाप सब सुनता रहा .. जब औरत कि देह में खुसबू सूघने वाले उसकी माँ का चरित्र चित्रण कर रहे थे..बेशर्मी और गंदे शब्दों के साथ .. उसकी मौन स्वीकृति और आँखों कि मज़बूरी बाध्य कर रही थी उसे सर नीचा करने को.. केसी भी हो .. माँ आखिर माँ होती हे चाहे कितनी भी अज्ञान हो .उसे बुरा लग रहा था . .. वो पढना चाहता हे .. अपने भाई बहेन को पढाना चाहता हे.. पर घर के ये हालात और नासमझी धकेल रहे हे उसे एक अन्धकार भरे भविष्य की और … जहा सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा हे.. वो खुसबू को पढाना चाहता हे .. चाहता हे की माँ ये सब छोड़कर उनके ऊपर ध्यान दे ..जब मेने उसे समझाया की बेटा अगर पढ़ लोगे तो ही अच्छी जिन्दगी जी पाओगे तो उसने बताया की अगर पापा होते तो वो जरुर पढता .. मेने उसे खुद पढ़ाने की भी बात की पर घर की मजबुरियो को याद कर वो चुप हो गया.. उसने बताया की बिना कमाए कुछ नही हो सकता .. मेरे पास भी कोई जवाब नही था.. समझ नही आ रहा किसको दोष दू.. ?? गरीबी को .. ? अज्ञानता को ? या सरकार को ?
शायद ऐसे ही किसी बच्चे को देखकर किसी ने लिखा हे-

गरीबी देख कर घर की वो जिद नही करते ..
नही तो उम्र बच्चो की बड़ी शोकीन होती हे ..

अभी भी बार बार उस छोटी बच्ची का मासूम चेहरा दिमाग में आ रहा हे जिसको खुद ये नही पता कि उसे सजा किस बात की मिल रही हे .. ?? वही पेड़ के ऊपर फडफडाता एक रास्ट्रीय पार्टी का फटा हुआ झंडा अपनी कपकपाहट से मासूम के अंदर की उस आवाज को प्रस्तुत कर रहा था जो कभी उन लोगो तक पहुच नही पाती जो करोडो रूपये को डकारकर बालदिवस पर लम्बी चोडी बाते करते हे .. भाषण रट डालते हे .. और जिसके लिए कभी न तो संसद स्थगित होती हे और ना कभी उनके ह्रदय में उनके लिए करुणा आएगी ..

और शायद मुझे भी आदत हो जाएगी अब हर रोज उस रंग बिरंगी दूकान को देखने की .. जिस पर खड़े होकर हमारा युवा वर्ग धुआ उड़ाते हुए इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की लम्बी चोडी बाते करेगा..और गुटके की पीक थूकता रहेगा .. हमारी पुलिस का जवान भी आकर उस बच्चे को डंडे का भय दिखाकर फ्री में गुटखे खायेगा .. और उस सड़क से गुजरने वाली सेकड़ो गाड़िया कालिख फेकते हुए निकलती रहेगी.. और मासूम “खुसबू” देखते देखते कब बड़ी हो जाएगी इन्ही धुल भरी आँधियों के बीच ……………

थीं कोसों दूर खुशिया अंजुमन के दरमियाँ मुझसे|
मैं कहने को बहुत कुछ था हुआ न कुछ बयाँ मुझसे||
मैं ही मासूम हूँ या हैं अभी वो लोग गफ़लत में|
बसाई हैं जिन्होंने दूर अपनी बस्तियां मुझसे|| – मासूम

लेकिन क्या वास्तव में हम सब कुछ कर सकते हे ऐसे बच्चो के लिए ??
या उसकी दूकान ऐसे ही चलती रहेगी ??
गरीबी और नशे के पीछे उसका जीवन ऐसे ही बर्बाद होता रहेगा.. ??

सुनील नागर जी @ग्रेटर नोएडा

साभार:ठलुआ क्लब फेसबुक से…

http://facebook.com/photo.php?fbid=496650977011631&set=a.245256845484380.70390.242514602425271&type=1

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