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किसकी मुट्ठी में देश की तकदीर?

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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चालीस बच्चों के मां-बाप अपने बच्चो के साथ आगरा में पांच दिनों तक अपने खर्चे पर इसलिये रुके रहे कि साबुन बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन में उनके बच्चे नजर आ जाये। सभी बच्चे चौथी-पांचवी के छात्र थे। और ऐसा भी नहीं इन चार पांच दिनों के दौरान बच्चो के स्कूल बंद थे। या फिर बच्चों को मोटा मेहताना मिलना था। महज दो से चार हजार रुपये की कमाई होनी थी। और विज्ञापन में बच्चे का चेहरा नजर आ जाये इसके लिये मां-बाप ही इतने व्याकुल थे कि वह ठीक उसी तरह काफी कुछ लुटाने को तैयार थे जैसे एक वक्त किसी स्कूल में दाखिला कराने के लिये मां-बाप हर डोनेशन देने को तैयार रहते हैं। तो क्या बच्चों का भविष्य अब काम पाने और पहचान बना कर नौकरी करने में ही जा सिमटा है। या फिर शिक्षा हासिल करना इस दौर में बेमानी हो चुका है। या शिक्षा के तौर तरीके मौजूदा दौर के लिये फिट ही नहीं है । तो मां बाप हर उस रास्ते पर बच्चों को ले जाने के लिये तैयार है, जिस रास्ते पढ़ाई-लिखाई मायने नहीं रखती है। असल में यह सवाल इसलिये कहीं ज्यादा बड़ा है क्योंकि सिर्फ आगरा ही नहीं बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों में करीब 40 लाख से ज्यादा बच्चे टेलीविजन विज्ञापन से लेकर मनोरंजन की दुनिया में सीधी भागेदारी के लिये पढ़ाई-लिखाई छोडकर भिड़े हुये हैं। और इनके अपने वातावरण में टीवी विज्ञापन में काम करने वाले हर उस बच्चे की मान्यता उन दूसरे बच्चो से ज्यादा है, जो सिर्फ स्कूल जाते हैं। सिर्फ छोटे-छोटे बच्चे ही नहीं बल्कि दसवी और बारहवी के बच्चे जिनके लिये शिक्षा के मद्देनजर कैरियर का सबसे अहम पढ़ाव परीक्षा में अच्छे नंबर लाना होता है, वह भी विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में कदम रखने का कोई मौका छोड़ने को तैयार नहीं होते।

आलम तो यह है कि परीक्षा छोड़ी जा सकती है लेकिन मॉडलिंग नहीं। मेरठ में ही 12 वी के छह छात्र परीक्षा छोड़ कम्प्यूटर साइंस और बिजनेस मैनेजमेंट इस्ट्टयूट के विज्ञापन फिल्म में तीन हप्ते तक लगे रहे। यानी पढ़ाई के बदले पढाई के संस्थान की गुणवत्ता बताने वाली फिल्म के लिये परीक्षा छोड़ कर काम करने की ललक। जाहिर है यहां भी सवाल सिर्फ पढाई के बदले मॉडलिंग करने की ललक का नहीं है बल्कि जिस तरह
शिक्षा को बाजार में बदला गया है और निजी कॉलेजो से लेकर नये नये कोर्स की पढाई हो रही है, उसमें छात्र को ना तो कोई भविष्य नजर आ रहा है और ना ही शिक्षण संस्थान भी शिक्षा की गुणवत्ता को बढाने के लिये कोई मशक्कत कर रहे है। सिवाय अपने अपने संस्थानो को खूबसूरत तस्वीर और विज्ञापनों के जरिये उन्हीं छात्रों के विज्ञापन के जरीये चमका रहे हैं जो पढाई-परीक्षा छोड़ कर माडलिंग कर रहे है। स्कूली बच्चों के सपने ही नहीं बल्कि जीने के तरीके भी कैसे बदल रहे है इसकी झलक इससे भी मिल सकती है कि एक तरफ सीबीएसई 10वीं और 12वीं की परीक्षा के लिये छात्रों को परिक्षित करने के लिये मानव संसाधन मंत्रालय से तीन करोड़ का बजट पास कराने के लिये जद्दोजहद कर रहा है। तो दूसरी तरफ स्कूली बच्चों के विज्ञापन फिल्म का हर बरस का बजट दो सौ करोड रुपये से ज्यादा का हो चला है। एक तरफ 14 बरस के बच्चो को मुफ्त शिक्षा देने का मिशन सरकार मौलिक अधिकार क जरिये लागू कराने में लगी है।

तो दूसरी तरफ 14 बरस के बच्चो के जरिये टीवी मनोरंजन और सिल्वर स्क्रीन की दुनिया हर बरस एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का मुनाफा बना रही है। जबकि मुफ्त शिक्षा देने का सरकारी बजट इस मुनाफे का
दस फीसदी भी नहीं है। यहां सवाल सिर्फ प्राथमिकताएं बदलने का नहीं है। सवाल है कि देश के सामने देश के भविष्य के लिये कोई मिशन,कोई एजेंडा नहीं है। इसलिये जिन्दगी जीने की जरुरतें, समाज में मान्यता पाने का जुनून और आगे बढ़ने की सोच उस बाजार पर आ टिका है, जहां मुनाफा और घाटे का मतलब सिर्फ भविष्य की कमाई है। और कमाई के तरीके भी सूचना तकनीक के गुलाम हो चुके हैं। यानी वैसी पढ़ाई का मतलब वैसे भी बेमतलब सा है, जो इंटरनेट या गूगल से मिलने वाली जानकारी से आगे जा नहीं पा रही है। और जब गूगल हर सूचना को देने का सबसे बेहतरीन मॉडल बन चुका है और शिक्षा का मतलब भी सिर्फ सूचना के तौर पर जानकारी हासिल करना भर ही बच रहा है तो फिर देश में पढाई का मतलब अक्षर ज्ञान से आगे जाता कहा है। इसका असर सिर्फ मॉडलिंग या बच्चों के विज्ञापन तक का नहीं है।

समझना यह भी होगा कि यह रास्ता कैसे धीरे धीरे देश को खोखला भी बना रहा है। क्योंकि मौजूदा वक्त में ना सिर्फ उच्च शिक्षा बल्कि शोध करने वाले छात्रों में भी कमी आई है, और जिन विषयों पर शोध हो रहा है, वह विषय भी संयोग से उसी सूचना तकनीक से आगे बढ़ नहीं पा रहे हैं, जिससे आगे शिक्षा व्यवस्था नहीं बढ पा रही है। यह सोच समूचे देश पर कैसे असर डाल सकती है यानी ज्यादा कमाई,ज्यादा मान्यता, ज्यादा चकाचौंध और कोई भी वस्तु जो ज्यादा से जुड़ रही है, जब उसमें शिक्षा कहीं फिट बैठ नहीं रही। ज्यादा कमाई और ज्यादा मान्यता की इस सोच के असर की व्यापकता देश की सेना के मौजूदा हालात से भी समझी जा सकती है। सिर्फ 2012 में दस हजार से ज्यादा सेना के अधिकारियों ने रिटायरमेंट लेकर निजी क्षेत्रो में काम शुरु कर दिया। क्योंकि वहां ज्यादा कमाई। ज्यादा मान्यता थी। मसलन बीते पांच बरस में वायुसेना के जहाज उड़ाने वाले 571 पायलेट नौकरी छोड निजी विमानों को उड़ाने लगे, क्योंकि वहां ज्यादा कमाई थी और अपने वातावरण में ज्यादा मान्यता थी। किसी भी निजी हवाई जहाज को उडाने के जरिये जो मान्यता समाज में मिलती उतनी पूछ वायु सेना से जुड़ कर नही रहती। चाहे सेना का फाइटर विमान ही क्यों ना उड़ाने का मौका मिल रहा हो। सोच कैसे क्यों बदली है। इसकी नींव को जानने से पहले इसकी पूंछ को सेना के जरिये ही पकड लें। क्योंकि भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां देश की सेना में 65 हजार से ज्यादा पद खाली हैं। और सेना में नौकरी ही सही उसके लिये भी कोई शामिल होने की जद्दोजहद नहीं कर रहा है। करीब 13 हजार ऑफिसर रैंक के अधिकारियो के पद खाली है। लेकिन जिस दौर में यह पद खाली हो रहे थे, उसी दौर में सेना छोड़ कर अधिकारी देश की निजी कंपनियों के साथ जुड़ रहे थे। कहीं डायरेक्टर का पद तो कही चैयरमैन का पद।
कहीं बोर्ड मेबर तो कही सुरक्षा सर्विस खोलकर नया बिजनेस शुर करने की कवायद। यह सब उसी दौर में हुआ, जिस दौर में सेना को सेना के अधिकारी ही टाटा-बाय बाय बोल रहे थे। देश के लिये यह सवाल कितना आसान और हल्का बना दिया गया है,यह इससे भी समझा जा सकता है कि संसद में सेना के खाली पदों की जानकारी देते हुये रक्षा मंत्री साफ कहते हैं कि थल सेना में 42 हजार से ज्यादा, नौ सेना में 16 हजार से ज्यादा और वायुसेना में करीब 8 हजार पद खाली है। और देश भर में जितनी भी एकडमी है जो सेना के लिये युवाओं को तैयार करती है अगर सभी को मिला भी दिया जाये तो भी हर बरस दस बजार कैडेट भी नहीं निकल पाते। जबकि इसी दौर में हर बरस औसतन बीस हजार से ज्यादा युवाओं को मनोरंजन उद्योग अपने में खपा लेता है। उन्हें काम मिल जाता है। और जिन स्कूलों की शिक्षा दीक्षा पर सरकार नाज करती है और प्राइमरी के एडमिशन से लेकर उच्च शिक्षा देने वाले संस्थानों में डोनेशन के जरिये एडमिशन की मारामारी में युवा फंसा रहता, अब वही बच्चे बड़े होने के साथ ही तेजी से उसी शिक्षा व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर चकाचौंध की दुनिया में कूद रहे है। महानगर और छोटे शहरों के उन बच्चो के मां-बाप जो कल तक अत्याधुनिक स्कूलों में एडमिशन के लिये हाय-तौबा करते हुये कुछ भी डोनेशन देने को तैयार है, अब वही मां-बाप अपने बच्चे का भविष्य स्कूलों की जगह विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में सिल्वर स्क्रीन पर चमक दिखाने से लेकर
सड़क किनारे लगने वाले विज्ञापन बोर्ड पर अपने बच्चों को टांगने के लिये तैयार है। आंकडे बताते हैं कि हर नये उत्पाद के साथ औसतन देश भर में 100 बच्चे उसके विज्ञापन में लगते है। इस वक्त करीब दो सौ ज्यादा कंपनियां विज्ञापनों के लिये देश भर में बच्चों को छांटने का काम इंटरनेट पर अपनी अलग अलग साइट के जरिये कर रही है। इन दो सौ कंपनियों ने तीस लाख बच्चों का रजिस्ट्रेशन कर रखा है। और इनका बजट ढाई हजार करोड़ से ज्यादा का है। जबकि देश की सेना में देश का नागरिक शामिल हो, इस जज्बे को जगाने के लिये सरकार 10 करोड़ का विज्ञापन करने की सोच रही है। यानी सेना में शामिल हो , यह बात भी पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर मॉडलिंग करने वाले युवा ही देश को बतायेंगे। तो देश का रास्ता जा किधर रहा है यह सोचने के लिये इंटरनेट , गूगल या विज्ञापन की जरुरत नहीं है। बस बच्चों के दिमाग को पढ लीजिये या मां-बाप के नजरिये को समझ लीजिये जान जाइयेगा।

पुण्य प्रसून बाजपेयी

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